THE ALMIGHTY :: भगवान-परमात्मा
ENLIGHTENMENT-AWARENESS-KNOWLEDGE OF THE ULTIMATE ब्रह्म ज्ञान
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By: Pt. Santosh Bhardwaj
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सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्णसनातन हैं। वे सारे जगत के कारणरूप प्रधान और पुरुष के भी नियामक परमेश्वर हैं। इस जगत के आधार, निर्माता और निर्माण सामग्री तथा स्वामी वे ही हैं। उनकी क्रीड़ा के हेतु ही जगत का निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ रहता है-होता है, वह ये परमेश्वर ही हैं। इस जगत में प्रकृति-रूप से भोग्य और पुरुष रूप से भोक्ता तथा दोनों से परे दोनों के नियामक साक्षात भगवान् भी ये ही हैं। इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भाव विकारों से रहित परमात्मा ने ही इस चित्र-विचित्र जगत का निर्माण किया है। और इसमें इन्होने ही आत्मा रूप से प्रवेश भी किया है। वे ही प्राण-क्रिया शक्ति और जीव-ज्ञान शक्ति के रूप में इसका पालन पोषण कर रहे हैं। क्रिया शक्ति प्रधान प्राण आदि में जो जगत की वस्तुओं की सृष्टि करने की सामर्थ्य है वह उन वस्तुओं की नहीं; अपितु इनकी की सामर्थ्य ही है। क्योकि वे परमात्मा के समान चेतन नहीं अपितु अचेतन हैं; स्वतंत्र नहीं परतंत्र हैं। उन चेष्टाशील प्राण आदि में केवल चेष्टा मात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो प्रभु की ही है। चन्द्रमा की कांति, अग्नि का तेज, सूर्य की प्रभा, नक्षत्र और विद्युत आदि की स्फुरण रूप से सत्ता, पर्वतों की स्थिरता, पृथ्वी की साधारण शक्ति रूप वृत्ति और गंध रूप गुण-ये सब प्रभु ही हैं। जल में तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करने की जो शक्तियाँ हैं, वे परमात्मा के स्वरूप ही हैं। जल और उसका रस भी वही हैं। इन्द्रिय शक्ति, अन्तःकरण की शक्ति, शरीर की शक्ति, उसका हिलना-डुलना, चलना-फिरना-ये सब वायु की शक्तियां उन्हीं की हैं। दिशाएं और उनके आकाश भी वही हैं। आकाश और उसका आश्रय भूत स्फोट-शब्द तन्मात्रा या परा वाणी, नाद-पश्यन्ति, ओंकार-मध्यमा तथा वर्ण (-अक्षर) एवं पदार्थों का अलग-अलग निर्देश करने वाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी वे ही हैं। इन्द्रियां और उनकी विषय प्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता वे ही हैं। बुद्धि की निश्चयात्मिका शक्ति और जीव की विशुद्ध स्मृति भी वे ही हैं। भूतों में उनका कारण तामस अहँकार, इन्द्रियों में उनका कारण तैजस अहँकार और इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं में उनका कारण सात्विक अहँकार तथा जीवों के आवागमन का कारण माया भी वे ही हैं। जैसे मिट्टी आदि वस्तुओं के विकार घड़ा, वृक्ष आदि में मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तव में वे कारण-मृतिका रूप ही हैं-उसी प्रकार जितने भी विनाशवान पदार्थ हैं, उनमे कारण रूप से अविनाशी तत्व परमात्मा ही हैं। वास्तव में वे उनके ही रूप हैं। सत्व, रज और तम-ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ-परिमाण-महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में वे ही माया द्वारा कल्पित हैं। जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे प्रभु से सर्वथा अलग नहीं हैं। जब इनमें प्रभु की कल्पना कर ली जाती है तब वे ही इन विकारों के अनुगत जान पड़ते हैं। कल्पना की निवृति हो जाने पर निर्विकल्प परमार्थ स्वरूप वे ही रह जाते हैं। यह जगत सत्व, रज और तम-इन तीनो गुणों का प्रवाह हैं; देह, इन्द्रियां, अन्तःकरण, सुख, दुःख और राग-लोभादि उन्हीं के कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी परमात्मा का सर्वात्मा सूक्ष्म स्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप ज्ञान के कारण ही कर्मों के फंदे में फंसकर बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकते हैं। मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार इन्द्रियादि के सामर्थ्य से युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है। किन्तु माया वश वह असावधान हो जाता है और स्वार्थ-परमार्थ से ही असावधान होकर सारी उम्र बिता देता है। मनुष्य को शरीर के सम्बन्धी, अहंता एवं ममता रूप स्नेह के फंदे से प्रभु ने ही बांध रखा है। वे अजन्मा हैं, फिर भी अपने बनाई हुई मर्यादा की रक्षा करने के लिए वे अवतार ग्रहण करते हैं। वे अनन्त और एकरस सत्ता हैं। [श्रीमद्भागवत 85-3-20]
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥18-46॥
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके, मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
जिस परमात्मा से संसार पैदा हुआ है और संचालित है, जो सबका उत्पादक आधार और प्रकाशक है जो सबमें परपूर्ण है अर्थात जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, उनके रहते हुए भी जो रहता है और जो उनके लीन होने के बाद भी रहेगा, तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने स्वभावज-वर्णोचित स्वभाविक कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए।
लौकिक और पारलौकिक कर्मो के द्वारा परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, परन्तु उनके करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि उनमें ममता होते ही वे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं। सिद्धि को प्राप्त करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों से परमात्मा की पूजा करने से प्रकृति से असंबद्ध होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसका प्रभु में स्वतः अनन्य प्रेम जाग्रत हो जाता है। अब उसको पाने-हासिल करने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय (हिन्दु, बौद्ध, ईसाई , पारसी, यहूदी, मुसलमान), वर्ग से व्यक्ति क्यों न हो वह परमात्मा के पूजन का अधिकारी है। भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के इस संवाद-श्री मद् भागवत गीता का जो अध्ययन करेगा उसके द्वारा परमात्मा ज्ञान से पूजित होंगे। कर्मयोगी और ज्ञान योगी अन्त में एक हो जाते हैं क्योंकि दोनों में जड़ता का त्याग किया गया है। इसी प्रकार भक्ति मार्ग भी जड़ता को मिटाता है।
Accomplishment is attained by an individual by worshipping the Almighty, from whom all the universes, organisms have evolved and by whom all the universes are pervaded, through his natural-instinctive-prescribed-Varnashram related deeds.
One should pray to the Almighty from whom the entire Universe has evolved, who operates the world, who is the creator, producer, founder and illuminator, administrator-organiser-who alone is complete amongest all–who was present before creation of infinite universes and who will remain after assimilation of infinite universes in him and who is pervaded in infinite universes, is worshipped automatically if the individual performs his natural-prescribed-Varnashram duties. Performance of the prescribed-Varnashram duties assigned to the individual, itself is worship of the God.
Both Karm Yog and Gyan Yog merge into one single stream by eliminating immovability-inertness through service and worship enabling detachment, resulting in immersion in Supreme Power.
अविनाशी भगवान विष्णु सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण से युक्त, निर्गुण व सगुण, सर्वगामी और सर्वव्यापी हैं। वे श्वेत द्वीप-क्षीर सागर में अनन्त नाग शय्या पर आसीन, चक्र-गदा, धारण करने वाले हैं।
अविनाशी भगवान विष्णु सर्वगत-अव्यक्त-सर्वव्यापी जगन्नाथ चतुर्मूर्ति कहे जाते हैं। (1). वासुदेव नामक श्रेष्ठ पद (तर्क या अनुमान द्वारा अज्ञेय) एवं निर्देश किया जाने में अशक्य, (2). शुक्ल (शुद्ध), (3). शांति युक्त, (4). अव्यक्त (अप्रकट) एवं द्वादश पत्रक (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) द्वादश मन्त्र वाला कहा गया है।
द्वादश पत्रक
प्रथम पत्रक: ॐ उनकी शिखा में स्थित है और मेष राशि और वैशाख मास का प्रतीक है,
द्वितीय पत्रक: न अक्षर उनके मुख में विद्यमान है और वहीं पर वृष राशि और ज्येष्ठ मास को दर्शाता है,
तृतीय पत्रक: मो उनकी दोनों भुजाओं में स्थित और मिथुन राशि तथा आषाढ़ मास का द्योतक है,
चतुर्थ पत्रक: भ अक्षर उनके नेत्रों में स्थिततथा कर्क राशि व श्रावण मास को दिखता है,
पञ्चम पत्रक: ग अक्षर उनके ह्रदय में स्थित सिंह राशि और भाद्रपद मास का प्रतीक है,
षष्ठ पत्रक: व अक्षर उनके कवच के रूप में कन्या राशि और आश्विन मास को दिखता है,
सप्तम पत्रक: ते उनके अस्त्र समूह के रूप में तुला राशि और कर्तिक मास को प्रकट करता है,
अष्टम पत्रक: वा उनके नाभि रूप में है और वृश्चिक राशि और मार्ग शीर्ष मास का प्रतीक है,
नवम पत्रक: सु जघन रूप में स्थित और धनु राशि और पौष मास को प्रकट करता है,
दशम पत्रक: दे अक्षर उनके उरु युगल रूप में मकर राशि और माघ मास का द्योतक है,
एकादश पत्रक: वा अक्षर उनके घुटने में विराजमान और कुम्भ राशि के साथ फाल्गुन मास के प्रतीक है,
द्वादश पत्रक: य अक्षर उनके चरण द्व्यरूप में विद्यमान मं राशि और चैत्र मास को दर्शाता है।
परमेश्वर की प्रथम मूर्ति: उनका चक्र 12 अरों 12 नाभियों और 3 व्यूहों से युक्त है।
द्वितीय रूप: सत्वमय, श्रीवत्स धारी, अविनाशी स्वरूप, चतुर्वर्ण, चतुर्वाहु, और उदार अंगों से युक्त है।
तृतीय मूर्ति: हजारों पैरों एवं मुखों से सम्पन्न श्री संयुक्त तमोगुण मयी शेष मूर्ति प्रजाओं का प्रलय करती है।
चतुर्थ रूप: राजस रूप रक्तवर्ण, चार मुख, एवं दो भुजाओं एवं माला धारण किये है। यही श्रष्टि करने वाल आदि रूप है।